आज आखों में नमी फिर आ गई..
पुरानी एक याद दिला गई..
एक चेहरा जिसे यादों से मिटा दिया था..
कही राहों में जो उससे रुबरु हुए, तो पलखों पर परोसा आसूं बहा गई…
आज आखों में नमी फिर आ गई..
पुरानी एक याद दिला गई..
एक चेहरा जिसे यादों से मिटा दिया था..
कही राहों में जो उससे रुबरु हुए, तो पलखों पर परोसा आसूं बहा गई…
सोच-सोच में, सोच सोच के, आधी ज़िंदगी बिता गए..
एक दिन बैठकर यू हीं, सोचा तो समझ आया, सारा ज़रुरी वक्त गवां गए…
इस सोच ने उस दौड़ का ख्याल ज़हन में ला दिया…
ऐसा लगा दबी हुई ख्वाहिशों को फिर जगा दिया..
ज़िदंगी की दौड़ में इतनी तेज़ क्यों भागा मैं..
अपनो ने इतना जगाया फिर भी ना जागा मैं..
उस समय कदम थाम लिए होते, तो आज किसी के साथ होता..
अपनी ख्वाहिशों को पन्ने पर उलटकर कभी ना रोता..
एक बार वक्त को दरिए को रोकना चाहता हूं मैं..
जहां से दौड़ लगानी सीखी वहीं पहुंचना चाहता हूं मैं…
शायद इस बार कोई मेरे कदमों को थाम लें..
और कोई ऐसा मिले, जो मेरे जाने के बाद भी अपनी ख्वाहिशों में मेरा नाम ले।